(यह लेख ‘कुसुमाग्रज’ जी के निधन के कुछ समय पश्चात् , साहित्य अकादेमी की पत्रिका
‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में प्रकाशित हुआ था । )
दस मार्च १९९९ को कविवर ‘कुसुमाग्रज’ ( वि. वा. शिरवाडकर ) के देहांत के साथ मराठी साहित्य के एक युग का अंत हो गया। कुसुमाग्रज का जन्म १९१२ मे हुआ था। १९२९ से उन की कविताएँ पत्रिकाओं में छपने लगीं। १९३३ में कविता की पहली पुस्तक ‘जीवनलहरी’ प्रकाशित हुई। १९४२ में कविता-संग्रह ‘विशाखा’ प्रकाशित हुआ। कुसुमाग्रज की काव्य-प्रतिभा बहुविध तथा बहुप्रसवा थी। उन्होने प्रेमकविता तथा भावकविता, स्वतंत्रतापूर्व तथा उपरांत जनचेतना की कविता, चिन्तनपरक कविता और गहरे सामाजिक आशय की कविता लिखी है। कविता के साथ-साथ नाटक के क्षेत्र में भी कुसुमाग्रज का योगदान महत्त्वपूर्ण है। शेक्सपियर के नाटकों का भाषांतर उन्होंने किया और अनेक नाट्यकृतियाँ भी रचीं। किंग लिअर से प्रेरणा ले कर उन्होंने ‘नटसम्राट’ नामक नाटक की रचना की, जिस की समीक्षकों और रसिक दर्शकों दोनों ने ही बड़ी सराहना की। नटसम्राट का ‘कुणी घर देता का घर’ ( ‘कोई घर दो रे घर’ ) यह स्वगत-भाषण एक गद्यकाव्य ही है, जो शेक्सपियर की याद दिलाता है।
कुसुमाग्रज की साहित्य सम्पदा विपुल है। कविताएँ वे ‘कुसुमाग्रज’ इस कवि-नाम से लिखते थे, और नाटक तथा अन्य साहित्य अपने मूल नाम से , याने कि ‘वि. वा. शिरवाड़कर’ इस नाम से लिखते थे । उन के १५ कविता-संग्रह, १८ नाटक, ८ कथा-संग्रह, ३ उपन्यास तथा एकांकिकाएँ, संपादित पुस्तकें और अन्य रचनाएँ प्रकाशित हुई है। उन्हे पुरस्कारों से तथा खि़ताबों से सम्मानित किया गया : १९७४ में नटसम्राट नाटक को ‘साहित्य अकादेमी का पुरस्कार’, १९८५ में ‘अखिल भारतीय नाट्य परिषद का पुरस्कार’, १९८६ में पुणे विश्वविद्यालय की डी.लिट्. उपाधि, १९८८ में संगीत नाट्यलेखन पुरस्कार । १९८९ में कुसुमाग्रज को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
कुसुमाग्रज एक सीधे-सादे, मृदु स्वभाव के व्यक्ति थे, जिन्हे अपने कर्तृत्व का कतई घमंड न था। वे एक विशाल हृदय मानव थे, जिन्हें समाज के उत्थान की, संस्कृति के तथा भाषा के संवर्धन की चिन्ता थी। उन का व्यक्तित्व चाँदनी की तरह शीतल था, उन का दरवज़ा हर एक के लिए हमेशा खुला रहता था, समाज के हर स्तर के लोग उन से मिलने आते रहते थे और उन से मिल कर संतोष तथा आनंद का अनुभव करते थे।
अर्थपूर्ण सामाजिक कविता तो उन्होंने लिखी ही, साथ ही सामाजिक क्षेत्र में भी उन का सहयोग रहा। अपने जीवन का अधिकांश समय उन्होंने महाराष्ट्र के नासिक शहर में व्यतीत किया ( जहाँ वे ‘तात्यासाहब’ नाम से घर-घर में परिचित थे )। नासिक के इर्द-गिर्द आदिवासियों के लिए उन्होंने उपयोगी उपक्रम शुरू किए , कुछ आदिवासी बच्चों को उन्होंने अपने घर में रख कर पाला-पोसा, पढ़ाया भी। ज्ञानपीठ पुरस्कार की धनराशि से उन्होंने ‘कुसुमाग्रज प्रतिष्ठान’ की स्थापना की, जो आज साहित्य, संस्कृति तथा सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत है। कुसुमाग्रज का जन्मदिवस २७ फरवरी, महाराष्ट्र में तथा अन्यत्र मराठी-भाषियों में ‘मराठी भाषा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
स्वतंत्रतापूर्व काल में कुसुमाग्रज ने राष्ट्रप्रेम तथा जनचेतना की कविता लिखी। ‘अहि-नकुल’ कविता में उन्होंने अंग्रेजी सत्ता के लिए एक फूत्कारते हुए सर्प के रूपक का प्रयोग किया है, जिस का नेवले द्वारा, अर्थात् जनशक्ति द्वारा, क्षण भर में विनाश हो जाता है। एक अन्य कविता में उन्होंने इसी सत्ता के लिए उन्मत्त रेलगाड़ी के रूपक का प्रयोग किया है जो ज़मीन को रौंदती हुई दौड़ती जाती है, पर पुल के टूट जाने से नीचे खाई में गिर कर क्षत-विक्षत हो जाती है। उन की कविता ‘गर्जा जयजयकार’ ( गरज उठो ‘जयकार’ ) १९४२ के क्रांतिसंग्राम में क्रांतिकारियों की प्रेरणा बनी। उस में क्रांतिकारी कहते हैं : ( मूल मराठी से भाषांतर प्रस्तुत लेखक द्वारा ) : ‘आँखें क्यों गीली हैं माता, उज्ज्वल तेरा भाल। निशागर्भ से आती ऊषा, आता है नवकाल। सुलग उठेगी जैसे ही हम सबकी आज चिता। ज्वाला से जागेंगे भावी क्रान्तिवीर नेता। लौहदंड तेरे टूटेंगे खनखनखनन् हज़ार। गरज उठो जयकार क्रांतिका गरज उठो जयकार।’
सन १९६२ के चीनी आक्रमण के समय उन्होंने उत्स्फूर्त लिखा, ‘सुलग उठे हिम के परकोटे। सदन शंभु का टूट गिरा। देखो अपनी प्रिय माता का। शुभ्र बर्फ पर रक्त झरा।’
कुसुमाग्रज ने अनेक प्रेम-कविताएँ तथा भाव-कविताएँ लिखीं। गोदावरी के कूल से उन्हें प्रेम है, सहगल की आवाज से उन्हें प्रेम है, सुंदरता के वे पुजारी हैं। कविता में वे प्रेम के विविध रूप दिखाते हैं। कर्तव्यपूर्ति के लिए दूर ( मुंबई में ) रहते हुए उन्हें अपने घर अपनी सखी की याद सताती है। वे कहते हैं – ‘नवलक्ष दीप बिजली के जगमग छाए। तारिकापुंज ज्यों उतर नगर में आए। पर स्मृति उस की आती, व्याकुलता छाती। जो विलस रही घर मंद दिये की बाती।’ मगर उन का प्रेम सजग है। प्रेम के कारण वे कर्तव्य नही भूलते। ‘स्वप्नाची समाप्ती’ ( ‘स्वप्न की समाप्ति’ ) कविता में वे कहते हैं – ‘बाहुओं की चॉंदनी सखि हटा अब गले से। क्षितिजपार दूत दिवस के खड़े हैं कभी से।’
‘पृथ्वीचे प्रेमगीत’ ( ‘पृथ्वी का प्रेमगीत’ ) कुसुमाग्रज की एक अमर प्रेम-कविता है, जिस में वे विशुद्ध उदात्त प्रेम की महत्ता गाते हैं। उसी कविता में पृथ्वी, जो सूर्य से प्रेम करती है, उस से कहती है – ‘तुम्हें भव्यता तेज को देख पूजा। न मैं जुगनुओं को उगाऊॅं गले। न दुर्बलों-सा क्षुद्र शृंगार चाहूँ। सहूँ दूरता जो तुम्हारी मिले। ‘प्रेमयोग’ उन की अन्य उत्कृष्ट कविता है ( जिस का भाषांतर आगे प्रस्तुत है ), जिस में वे प्रेम को दार्शनिक भाव से देखते हैं।
संवेदनाक्षम मन दीवानगी पर न्योछावर हो जाता है। कुसुमाग्रज की कविताओं में ‘दीवानगी’ का, ‘पागलपन’ का कई जगह उल्लेख आता है। कहीं इस दीवानगी में एक लगन, एक धुन झलकती है, जैसे :
‘ध्येय प्रेम आशाओं की। होती कभी क्या पूर्ति है ? पागलोंसम पूजते हम। टूटती जो मूर्ति है।’ कहीं वे दीवानगी का, मन की आकांक्षा, मन के स्वप्नों से संबंध जोड़ते हैं – ‘स्वप्न एक, जो था नयन में। एक रात आया हुआ। दौर एक दीवानगी का। एक रात छाया हुआ ।’ दीवानगी का मतलब है जिगर, एक ज़िद। कुछ सामाजिक कविताओं में भी कुसुमाग्रज ने इस प्रकार के जिगर का चित्रण किया है। उन की कविता ‘कणा’ ( रीढ़ ) इस का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे पढ़ मन स्तम्भित हो जाता है।
कुसुमाग्रज की चिन्तनपर कविता भी बड़ी अर्थ-गर्भ है। एक ग़ज़ल में वे सहज रूप से जीवन-संदेश देते हैं – ‘मंजि़लों की चाह मैं ने इसलिए ही छोड़ दी। पथक्रमण में श्रेय है, ना अन्य धर्माचार है।’ शायद इसीलिए वे जीवन को निर्मोही दृष्टि से देखते हैं – ‘थी खिली गगन के नीचे। मिट्टी में एक कहानी। ढलने का क्षण जब आता। क्यों आँखों में है पानी ?’
‘गाभारा’ ( ‘गर्भागार’ ), ‘हिम्मत’ आदि उन की अनेक ऐसी कविताएँ हैं जिन में समाज की स्थिति का एक गहरा सत्य उभर कर सामने आता है। ( ‘गाभारा’ का भाषांतर आगे प्रस्तुत है। )
स्वतन्त्रता के फलस्वरूप प्राप्त जिम्मेदारी का कुसुमाग्रज को बड़ा भान था। सन १९९७ में स्वतंत्रता के स्वर्णमहोत्सव के अवसर पर उन्होंने स्वतंत्रतादेवी का ‘फटका’ ( थप्पड़ / उपदेश ) लिखा, जिस में स्वतंत्रतादेवी जनता को चेतावनी देती है और साथ ही सद्व्यवहार करने की बिनती करती है।
जिस प्रकार बाङ्गला साहित्य में शरतचंद्र तथा रवीन्द्रनाथ ने बच्चों के लिए ख़ास पुस्तकें लिखीं, उसी प्रकार कुसुमाग्रज ने बच्चों के लिए ‘अक्षरबाग’ की रचना की जो उन की मृत्यु के कुछ दिन पहले प्रकाशित हुई ।
भावी पीढ़ी अनेक कारणों से कुसुमाग्रज की ऋणी रहेगी, जिस में से एक कारण है ‘अक्षरबाग’। वस्तुतः उन का सारा साहित्य ही एक बाग़ है, जिस में विचरण करके मन विभोर हो उठता है, और साथ ही साथ विचारों को दिशा भी मिलती है।
साहित्यक्षेत्र के मान्यवरों की तथा अन्यों की प्रतिक्रियाएँ कुसुमाग्रज की महानता का एहसास दिलाने के लिए पर्याप्त हैं। जानेमाने साहित्यिक पी. एल्. देशपांडे कहते हैं, ‘’मेरा जन्म-नक्षत्र क्या था यह तो मुझे पता नहीं, पर मेरी जवानी का नक्षत्र कुसुमाग्रज का ‘विशाखा’ ही था, इस में संदेह नहीं।’’ कविवर वसंत बापट अपनी कविता में कुसुमाग्रज को ‘कविकुलगुरु’ संबोधते हैं। कविवर शंकर वैद्य कहते हैं, ‘’ कुसुमाग्रज एक भरा हुआ सिन्धु हैं” ।
वास्तव में कुसुमाग्रज अमृतसिन्धु हैं ।
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– सुभाष स. नाईक
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कुसुमाग्रज की कुछ कविताएँ
प्रेमयोग
प्रेम किस से करें?
प्रेम किसी से भी करें।
राधा के वत्सल स्तनों से
कुब्जा के विद्रूप कूबड़ से
भीष्म-द्रोण के थके-हारे तीर्थरूप चरणों से
दुर्योधन-कर्ण के अभिमानी अपराजित मरणों से ।
प्रेम किसी से भी करें।
सुदामा नामक भिक्षुक से
अर्जुन नामक राजेन्द्र से
बाँसुरी से झरने वाली सप्तसुरों की चाँदनी से
यमुना का जल विषैला करने वाले कालिया के फन से
प्रेम किसी से भी करें।
रुक्मिणी के लालस होठों से
गणेश की हास्यास्पद तोंद से
गाय की आँखों में बसी अथांग करुणा से करें
मयूरपंख के अद्भुत लावण्य से करें
प्रेम, हृदय के नाते से करें
और खड़्ग की धार से भी करें।
प्रेम किसी से भी करें।
गोपियों की मादक लीलाओं से
वृंदावन के बालगोपालों के तुतले बोलों से
यशोदा के दूध से – देवकी के आँसुओं से
बलराम के कंधे पर रक्खे हुए हल के फाल से करें
कंस के कलेजे में सुलगती हुई द्वेष-ज्वाल से करें ।
प्रेम किसी से भी करें।
योग से प्रेम करे – भोग से प्रेम करें
पर उस से भी अधिक – त्याग से प्रेम करें।
चारो पुरुषार्थों की मस्ती में डुबोने वाले
जीवनद्रव से प्रेम करें
और,
व्याध के बाण से विद्ध हो कर
निर्मनुष्य अरण्य में पड़े हुए
अपने शव से भी प्रेम करें
क्योंकि –
प्रेम है मनुष्य की संस्कृति का सारांश
उस के इतिहास का निष्कर्ष
और भविष्य में ऊस के अभ्युदय की आशा ।
एकमेव !
–
गर्भागार
दर्शन लेने आए हो ?
आओ –
मगर आजकल इस मंदिर में भगवान नहीं है।
गर्भागार है, चाँदी की सजावट है
सोने के दीपक हैं, हीरों की झालर है
उन का दर्शन लेने में भी कुछ हर्ज नहीं।
वह घंटा बजाओ और आओ आगे।
देखा वह ख़ाली गर्भागार ?
नहीं – ऐसी बात नहीं –
पहले था वह यहाँ ।
उषःकाल की आरती के समय जागता था
रात की आरती के बाद सोता था
दरवाज़ा बंद करके ठीक बारह बजे खाना खाता था
दो घंटे झपकी लेता था
सब कुछ भलीभाँति चल रहा था
रुपयों की राशियॉं, मोतियों के ढेर
पैरों पर जमा हो रहे थे
दक्षिणद्वार पर मोटरगाडि़यों के भोंपू बजते रहते थे
मंत्रजागर होते रहते थे
रेशमी साडि़यॉं, टेरिलीन के सूट
सामने आ कर घुटने टेकते थे
बैंक के खाते में पैसा हिरन की भॉंति दौड़ रहा था
इच्छा के अनुरूप हो रहा था सब कुछ।
पर हमारा दुर्भाग्य !
एक दिन
उत्तरद्वार के बाहर रोका गया एक कंगाल कुष्ठरोगी
तारस्वर मे चिल्लाया –
‘बाप्पाजी, बाहर आओ !’
और अगले दिन उषःकाल की आरती के वक्त़
हम ने देखा –
तो गर्भागार खाली था !
पुलिस मे ख़बर दे दी है।
वापस ?
शायद आ भी जाए –
पर यदि वह कुष्ठरोगी की बस्ती में
रह कर आया हो
तो हमारे ट्रस्टियों को सोचना पड़ेगा
कि उसे मंदिर में पुनः प्रवेश
दिया जाय या नहीं।
जयपूर से पत्रव्यवहार जारी है –
दूसरी मूर्ति के लिए।
पर फि़लहाल गर्भाकार का दर्शन ले लो।
और यों देखा जाय तो
गर्भागार का ही महत्त्व अंतिम होता है
आखि़र –
गर्भागार सलामत तो भगवान पचास !
– कविताओं का मराठी से भाषान्तर : सुभाष स. नाईक
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