शाम का वक़्त था । शौकत अली दीवानख़ाने में आरामकुर्सी पर बैठे हुए थे, और आँखें मूँदकर हुक़्क़ा गुड़गुड़ा रहे थे । ‘अस्सलाम आलेकुम’ सामने से आवाज़ आई । ‘व आलेकुम अस्सलाम’ शौकत अली ने आँख मूँदे ही जवाब दिया । वे हाल ही में हज से लौटे थे, और कोई न कोई उनसे मिलने आता ही रहता था ।
शौकत अली ने आँखें खोलीं । सामने खड़े थे उनके बचपन के दोस्त अहमद । शौकत और अहमद मदरसे में साथ साथ पढ़ते थे, और तब से उनकी दोस्ती थी । लेकिन काफ़ी सालों से अहमद लखनऊ से बाहर ही बसे हुए थे । पहले ख़ुद की नौकरी की वजह से वो दिल्ली में थे, और आजकल वो उनके साहबज़ादे के पास कलकत्ता में रहते थे । अहमद मियाँ कभीकदाक लखनऊ आया करते थे , तब कहीं न कहीं उनकी मुलाकात शौकत अली से हो जाती थी, दुआ सलाम हो जाया करती थी । मगर बहुत सालों से उनका शौकत के घर आना नहीं हुआ था ।
‘अमाँ अहमद ! बहोत वक़्त के बाद मिल रहे हो । कहो, कैसे हो ?’
‘लखनऊ आया हुआ था । सुना के तुम हज से लौटे हो । तो हम मिलने चले आए ।’
‘हाँ हाँ, क्यों नहीं, क्यों नहीं । बैठो । कहो साहबज़ादे कैसे हैं ?’
‘ऊपरवाले की मेहरबानी से सब अच्छा चल रहा है ।’, बैठते हुए अहमद मियाँ ने कहा ।
‘लो, शौक फरमाओ’ । शौकत ने हुक़्क़े की नली बढ़ाई ।
बातों का सिलसिला शुरू हुआ, चलने लगा । अहमद ने जेब से एक चपटी डिब्बी निकाली, खोली, ‘लो गिलौरी खाओ ।’
‘वो तो ज़रूर लेंगे , मगर पहले हल्क़ को कुछ गरम किया जाय ।’
शौकत अली उठे, पीछे की आलमारी खोली, उस में से दो गिलास और एक बोतल निकाली । ‘असली स्काच विस्की है ।’
अहमद चौंक गए । ‘मियाँ तुम भी ! हमारी बात अलग है, हम तो साहब हमेशासे .. । हमारा तो ऐसा है
के — । शे’र अर्ज़ है –
‘ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो । ’
‘वल्लाह् ! क्या शे’र है ! लाजवाब !
‘ये वाहवाही छोड़ो, ये तो बतलाओ, तुम कैसे इस चक्कर मैं ? इस का तो हमें अंदेशा ही नहीं था । तुम तो भई नमाज़ी हो, अब तो हाजी भी हो । ये तो सोचा नहीं था के तुम भी ये शौक रखते हो ।’
शौकत अली ने संजीदगी से जवाब दिया, ‘ शैख़ जी, देखो, बात ऐसी है, के बंदगी एक चीज़ है, और मै एक अलग चीज़ है । दोनों का एकदूसरे से कोऽई ताल्लुक़ नहीं । नमाज़-हज ये सब रूहानी अमन के लिये हैं, और मै तो जिस्मानी अमन के लिये है, रोजमर्रा की ज़िंदगी में चैन के लिये है । बंदगी से ख़ुल्द मिलता है, मगर देर से । लेकिन, मै से तो, यहीं, इसी वक़्त, इसी लम्हे में जन्नत हासिल हो जाती है ।’
‘क्या ख़ूब कही !’ , अहमद ने तालियाँ बजाईं ।
‘बातें बहुत हो गईं, अब पियाला उठाओ, बिस्मिल्लाह् करो ।’
बातों का दौर चलता रहा , गिलास ख़ाली होते रहे ।
यकायक पास की मस्जिद से अज़ान सुनाई दी ।
अहमद कुछ कहें इस से पहले ही शौकत अली तपाक से उठे, अधभरा गिलास मेज़ पे रख दिया । ‘नमाज़ का वक़्त हो गया । आते हो ?’
अहमद चुपचाप बैठे रहे, ‘ना’ में गरदन हिला दी ।
‘बस अभी आता हूँ’ कह के शौकत अंदर चले गए ।
नमाज ख़त्म होते ही शौकत फिर से दीवानख़ाने में दाख़िल हुए, कुर्सी पर बैठे, और गिलास उठा के होंठों से लगाया ।
अहमद मियाँ बैठे रहे ; दिल ही दिल में, ‘मुझ में और मेरे हाजी दोस्त में क्या फ़र्क़ है ; क्या मेरा दोस्त हिपोक्रीट है , रियाकार है , क्या वो अस्ल में बेदीन है ?’, इस का जायज़ा लेते हुए ।
फिर वो यकायक उठ खड़े हुए, जाने निकले ; ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ कहने का भी ख़याल नहीं रहा ।
शौकत अली पीते रहे , आहिस्ता, आहिस्ता, घूँट घूँट ।
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( एक ख़ुलासा – इस अफ़्साने में, लिखनेवाले ने, अपने तसव्वुर से, इन्सानी जज़्बे, ख़यालात, और बर्तावों की सिर्फ़ एक तस्वीर पेश की है । यहाँ किसी भी मज़हब की, मज़हब के बंदों की, या मज़हबी दस्तूरों की बेअदबी करने का कोई भी इरादा नहीं है ; और ना ही यहाँ कोई नसीहत देने की कोशिश है । )
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- सुभाष स. नाईक
Subhash S. Naik
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